क्या यह एक संवेदन शील और अच्छी परंपरा है? हद तो जब हो जाती है जब एक गरीब व्यक्ति जिसके घर पर खाने को पर्याप्त भोजन भी उपलब्ध नहीं है उसे मृतक की आत्मा की शांति के लिए मृत्यु भोज देने के लिए मजबूर किया जाता है | एक अनावश्यक परम्परागत रूडी। मनुष्य के मरने के बाद उसके परिवार के प्रियजनों को "वियोग से उत्पन्न दुःख और वर्षों पुराने संचित संबंधो का एकाएक सदा के लिए समाप्त हो जाना एक भावनात्मक उफान लेन वाला होता हे। एसेसमय पर प्रायः परिजन 'कुछ करने के मूड में होते हें। सरे संसार में लोग स्वर्गीय आत्मा के लिए -पूजा प्राथना,श्राद्ध,पिंड,से लेकर दान पुण्य तक बहुत कुछ किया जाता हे । भारतीय संस्क्रती का आदर्श यह हे की इसमें विना परिश्रम प्राप्त धन,का उपयोग करना सदा से ही दुषप्रवर्ती मान उसे दर्शन में शामिल किया हे। संतान जब तक अशक्त,अविकसित हों तब तक उन्हें अभिभावकों से भरण पोषण की पात्रता हे। समर्थ होकर उन्हें स्वौपर्जित आजीविका पर निर्भर रहना चाहिए। संतान स्वावलंबी हो तब उसे अपने पूर्वज की कमाई संपदा समाज को लोटा देनी चाहिए। सांस्क्रतिक परम्परा यही रही थी की दिवंगत व्यक्ति के आश्रित, अवयस्क, या उपार्जन में असमर्थ उतराधिकारी पालन,शिक्षा विवाह,एवं विकास के लिए आवश्यक धन रखकर शेष लोक कल्याण के लिए स्वर्गीय आत्मा की शांति और सदगति के लिए दान कर देते थे। साधारण स्तिथी में मृतक के धन का उपयोग उतराधिकारी के लिए अनुचित माना जाता था। इसी लिए समाज के सभी लोग एकत्र होकर उस धन को लोक मंगल के लिए उपयोग की योजना एवं प्रक्रिया बनाते थे। मृतक के प्रति बरती इसी श्रधा या सद्भावना का नाम "श्राद्ध" था। जो दान लोभ,मोह वश मृतक न कर सका उसकी पूर्ति उतराधिकारी कर देते थे। इससे जहाँ एक और अनीति से प्राप्त उपार्जन का प्रायश्चित भी हो जाता था,और इस पुण्य फल से सदगति भी मिल जाती थी। इस द्रष्टि से यह सनातन "श्राद्ध" परम्परा उचित ही थी। यही मृतक भोज का आधार भी था। बाद के अंधकार और अज्ञानता के चलते जिव्भा के लोभी लोगो ने लोक मंगल की बात उडा दी और पूरी मालपुआ, मिठाई की बढ़िया दावत भोज उडा डालने का क्रम चल पड़ा। बाप ने कुछ छोड़ा हो या न छोड़ा हो,घर की केसी भी दयनीय परिस्तिथि क्यों न हो,मृतक भोज के नाम पर एक लम्बी चोडी दावत का प्रचलन चल पड़ा। लोक मंगल के काम में आ सकने वाला धन भी "चतुर पंडित"ठगने लगे । मृतक की मुक्ति के नाम पर अन्न.वस्त्र,पात्र,(वर्तन)पलंग,बिस्तर,गाय.मकान,आभूषण,अदि झटकने की परम्परा प्रारम्भ हो गई। परमार्थ में लगने वाला वह पैसा वास्तव में पुण्य बन गया होता यदि वह धन परमार्थ में लगा होता | कृष्ण कुमार धाकड़ प्रवक्ता धाकड़ टुडे पत्रिका अखिल भारतीय धाकड़ युवा संघ नीमच
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